मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने पारंपरिक शिक्षा से आगे जाकर आधुनिक शिक्षा पर दिया था जोर-प्रो. आफ़ताब
dil india live (Chandoli). Mughalsarai के होटल स्प्रिंग स्काई में तमिल फाउंडेशन के तत्वाधान में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का शिक्षा दर्शन और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 विषयक एक दिवसीय विचार गोष्ठी BHU उर्दू विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. आफ़ताब अहमद आफाक़ी की अध्यक्षता में हुई। इस मौके पर आफाकी ने कहा कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को कई विषयों में महारत प्राप्त थी। वह एक बड़े आलिम ए दीन, महान शिक्षाविद, दार्शनिक, बेबाक पत्रकार, कुशल राजनीतिज्ञ थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू भी उनकी राजनीतिक कुशलता के प्रशंसक थे और उन्हें एक मझा हुआ राजनीतिज्ञ मानते थे। उन्होंने कहा मौलाना का विचार था कि बच्चों को धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ ऐसी शिक्षा दी जाए जिसके माध्यम से हमारी नस्ले दुनिया को समझें और दुनिया के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ें। इसके लिए उन्होंने 1948 में संस्कृत पाठशालाओं और मदरसे की नुमाइंदों के साथ अलग-अलग कॉन्फ्रेंस की, जिसमें उन्होंने दोनों संप्रदायों से कहा कि वे अपनी पारंपरिक शिक्षा से आगे बढ़कर पाठ्यक्रम में आधुनिक शिक्षा को जगह दें और बच्चों को धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ विज्ञान, टेक्नोलॉजी, कला, संस्कृति आदि भी सिखाएं, ताकि वे दुनिया के साथ चल सकें। उनका मानना था कि अंग्रेजों द्वारा यूरोपीय शिक्षा प्रणाली ने छात्रों के दिमाग को बंद कर दिया है और उनके दिमाग से मानवीय मूल्यों, सहनशीलता और त्याग की भावना को खाली कर दिया है।
विशेष अतिथि डिप्टी डायरेक्टर/प्रिंसिपल डाइट चंदौली ने कहा कि मौलाना आज़ाद स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ-साथ भारत में आधुनिक शिक्षा के संस्थापकों में से एक थे। नेशनल एजुकेशन पॉलिसी 2020 में मौलाना आज़ाद के शैक्षिक विचारों से जुड़ी कई बातें शामिल हैं। विशेष वक्ता BHU के हिंदी विभाग के पूर्व विभाग अध्यक्ष प्रोफेसर बलराज पांडेय ने अपने भाषण में कहा कि मौलाना आज़ाद हमेशा मुसलमानों में राजनीतिक जागरूकता पैदा करने के लिए चिंतित रहते थे और कड़ी मेहनत करते थे। वे विभाजन के सख्त खिलाफ थे और इसे एक जानलेवा बीमारी बताते थे। उन्होंने हमेशा धार्मिक सहनशीलता और राष्ट्रवाद पर जोर दिया। BHU के भूगोल विभाग के प्रोफेसर सरफराज आलम ने आंकड़ों के हिसाब से मुसलमानों के पढ़ाई में पिछड़ेपन का जिक्र करते हुए कहा कि बेसिक एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन में प्रवेश लेने वालों में मुस्लिम बच्चों का हिस्सा मुस्लिम आबादी के हिस्से से ज़्यादा है, लेकिन यह धीरे-धीरे कम होता जाता है, यानी वे बीच में ही पढ़ाई छोड़ने लगते हैं। यह दर आगे चलकर बहुत ज़्यादा है, ग्रेजुएशन में भी यह संख्या दुर्भाग्य से घटकर लगभग ढाई प्रतिशत रह जाती है।
इंडियन रेलवे मुगलसराय जोन के पूर्व वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी दिनेश चंद्र ने अपने भाषण में कहा कि बच्चों को शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश दिलाने के साथ-साथ उनकी पढ़ाई आगे जारी रखना भी बहुत ज़रूरी है। परिवार के भविष्य के साथ-साथ देश के भविष्य की ज़िम्मेदारी भी उनके कंधों पर होती है। उन्होंने कहा कि यह बहुत दुख की बात है कि जिसक़ौम से आज़ाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री थे, वही क़ौम आज शिक्षा में पिछड़ रही है। इसका साफ़ मतलब है कि लोगों ने उनके कार्यों,विचारों और सेवाओं को भुला रखा है । उन्होंने मुसलमानों में शिक्षा के पिछड़ेपन के लिए मुस्लिमो को ही ज़िम्मेदार ठहराया। शिक्षा के महत्व पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि स्कूल खोलना जेल बंद करने जैसा है। डॉ. शम्स अज़ीज़, वाराणसी के रीजनल डायरेक्टर (MANU) ने भी मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद की शख्सियत पर रोशनी डाली। इस प्रोग्राम में 2025 में सेवा निर्मित हुए उर्दू टीचरों को भी उनकी शिक्षा सेवाओं के लिए सम्मानित किया गया। अज़हर आलम हाशमी, इरफ़ान अहमद, सोहराब अली अंसारी, शाहजहां बेगम, जहांआरा, इश्तियाक अहमद को मेहमानों ने शॉल मुमेंटो और ततोहफे दिए । प्रोग्राम की शुरुआत पवित्र कुरान की तिलावत से हुई। अपने स्वागत भाषण में, डाइट लेक्चरर डॉ. अज़हर सईद ने सभी मेहमानों का स्वागत करते हुए तामीर फाउंडेशन के कार्य और उसके मकसद से लोगों को रूबरू करवाया। उन्होंने कहा कि तामीर फाउंडेशन मुख्य रूप से शिक्षा, जागरूकता , इसके प्रचार प्रसार और विशेष रूप से उर्दू भाषा एवं साहित्य के विकास और उसके संरक्षण कलिए बनाया गया है और आज का कार्यक्रम इसी फाउंडेशन की देखरेख में आयोजित किया गया है। सुश्री अफशां रोमानी और शफाअत अली ने संयुक्त रूप से संचालन किया। कार्यक्रम का समापन इरफान अली मंसूरी के धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ।








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