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बुधवार, 21 अप्रैल 2021

सहरी का वक्त हो गया रोजेदारो उठो कुछ खां लो...


रोजेंदारों को जगाने कभी आती थी टोलियां

वाराणसी (दिल इंडिया लाइव)। सहरी का वक्त हो गया है, उठो रोज़ेदारो कुछ खां...। कुछ ऐसे ही अल्फाज़ अल सहर जब गली महल्लो में गूंजते तो तमाम रोज़ेदार बिस्तर से सहरी करने के लिए उठ बैठते थे। तीन दशक पहले बाकायदा रोज़ेदारों को जगाने के लिए हर मुहल्लो में टोलियां निकलती थी, आधुनिकता के चलते अब न तो टोलियां रहीं और न ही रमज़ान में जगाने वाली पुरानी तकनीक।
एक समय रमज़ान शुरु होते ही देर रात घड़ी की सुईयां जब 3 बजे के करीब पहुंचती तो अचानक बनारस समेत पूर्वांचल के तमाम शहरों का नज़ारा बदलने लगता था। रोज़ादारों को जगाने के लिए टोलियां निकलती। यही नहीं, मस्जिदों से भी रोज़ेदारों को जगाने के लिए ऐलान होता, माइकों से आवाज़ आती है, ‘जनाब! नींद से बेदार हो जाइए, सहरी का वक्त हो चुका है.’ यही नहीं, कहीं-कहीं ढोल व नगाड़े भी बजाए जाते हैं और फिर आवाज़ लगाकर हर रोजे़दार को उठाने की कोशिश की जाती है. ‘रोजेदारों, सहरी का वक्त हो गया है, सेहरी खा लो, हज़रात! सिर्फ आधे घंटे बचे हैं जल्दी सेहरी से फारिग़ हो जाएं.’ मसिजदों से रोज़ेदारों को जगाने की यह तकनीक तो आज भी कायम है मगर, रोज़ेदारों को जगाने वाली टोलिया अब बीते दिनों की बात हो गई। आज, आधुनिकता और तकनीक के इस दौर में सहरी में जगाने के तरीके यकीनन बदल गए हैं। आज सेलफोन, लैपटाप, आइपाट से जहां अज़ान की आवाजें आ रही है, वहीं इन्हीं तकनीक और साधन से सहरी में जागाने का सहारा ले रहे हैं। 
जी हां! पहले रमज़ान की सहरी में लोगों को जगाने के तरीक़े पहले जुदा थे, पूर्वांचल के ज़्यादातर इलाक़ों में लोगों को जगाने के लिए सड़कों पर क़ाफ़िले निकलते थे। लोगों की टोलियां गलियों व मुहल्लों में घूम-घूम कर रोज़ेदारों को मीठे-मीठे नग़मों से बेदार करती हैं। लोगों को जगाने के लिए कव्वाली गाये जाते थे हम्द व नआते-शरीफ़ पढ़ी जातीथी और जब बात इससे भी नहीं बनती तो ऐलान किया जाता है कि ‘सहरी का वक्त है रोज़ेदारों’, सहरी के लिए जाग जाओ’। वाराणसी के गौरीगंज के मरहूम सैयद नवाब अली को लोग आज भी भूल नहीं पाये हैं। सैयद नवाब अली न सिर्फ रमजान बल्कि हमेशा फजर की नमाज़ के लिए लोगों को जगाया करते थे।
 बजरडीहा के शकील अहमद बताते हैं कि रमज़ान में लोगों को जगाने वाली टोलियों जैसी बेहतरीन परंपरा के गायब होने के पीछे आधुनिक तकनीक जिम्मेदार है। ‘पहले जब समय जानने का कोई तरीका नहीं था, तब सहरी के लिए जगाने वाली काफ़िले की काफी अहमियत थी। लोगों को सोते से जगाने का यह एक अच्छा तरीका था, लेकिन अब लाउडस्पीकर से ही मसजिद से जगाने भर से काम चल जाता है।

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