रमज़ान का पैग़ाम: 11(24-04-2021)
रब कहता है मांगों न दूं तो कहो, मगर हमें मांगना ही नहीं आता
वाराणसी (अमन/दिल इंडिया लाइव)। पूरी दुनिया कोरोना कि आपदा से खौफज़दा है, मरने वालों और बीमार होने वालो का आंकड़ा रोज़ नया रिकार्ड बना रहा है। इस बार कोरोना कि रफतार काफी तेज़ है, इस बार कोई ये भी नही कह रहा है कि कोरोना जमातियो ने या नमाज़ियो ने फैलाया। कहीं कोई किसी पर दोष भी नही दे रहा है बल्कि सब यही चाह रहे हैं कि किसी तरह वो इसकी जद में न आये। मुसलमानो के लिए तो ईमान मज़बूत करने का ये वक्त है, क्यों कि कोरोना आपदा के साथ ही एक ऐसा महीना भी आ गया है जिस महीने को रब ने अपना महीना कहा है, रब तो यहाँ तक कहता है कि मांगो न दूं तो कहना। मगर हम कितने बदनसीब हैं कि हमें मांगना ही नही आता। हम रमज़ान का रोज़ा रख रहे हैं मगर हम मांग नहीं पा रहे हैं कि, मौला कोरोना कि आपदा दूर कर दे। रोज़ मस्जिदों से ऐलान हो रहा है कि आज फला का इंतेकाल हो गया, आल फला गुज़र गया मगर हमें क्या हो गया है कि हम केवल और केवल अपना सोचते हैं। हमारी इफ्तार कि थाली में वो सारे लज़ीज़ पकवान हो जो दुनिया में बेहतर माने जाते हैं भले ही रहमतपुर, पुरानापुल, बजरडीहा, जोल्हा और लोहता कि गरीब बस्ती में कारोबार खराब होने कि वजह से फाके का मंज़र हो, वहाँ के रोज़ेदारो को रोज़ा खोलने के लिए खजूर तो दूर पानी भी अगर मयस्सर न हो तो कैसे खुद को हम मुसलमान कहेंगे।
इस्लाम कह रहा है कि पता करो कोई पड़ोस में भूखा तो नहीं हैं, अगर कोई तुम्हारे पड़ोस में भूखा हैं, उसके घर पर इफ्तारी का सामान नही है तो उसकी भूख मिटाना, उसे इफ्तारी का सामान मुहैया कराना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है। मगर हम पहले अपना पेट भरने के चक्कर में अपनी ज़िम्मेदारी भूलते जा रहे हैं। इस्लाम ने अगर पड़ोसी का अधिकार दिया है तो ज़कात का सिस्टम भी बनाया है ताकि हर साहिबे निसाब अपने दौलत और जमा कमाई का शरीयत कि ओर से तय मानक (ढाई फीसद (2.5%) ) के हिसाब से गरीबो को ज़कात दे दें ताकि वो भी रमज़ान और ईद कि खुशियां मना सकें, मगर जब पूरा रमज़ान जाने लगेगा तब ज़कात निकाली जायेगी तो किसी का क्या भला होगा। इस्लाम यह भी कह रहा है कि एक हाथ से दो तो दूसरे को पता न चले कि क्या दिया और किसे दिया, कितना दिया। आज ज़कात देने में भी दिखावा और चालाकी कि जा रही हैं। शायद यही वजह है कि तमाम आपदाएं और परेशानिया हमें घेरे हुए हैं।
ज़कात देना हर साहिबे नेसाब पर वाजिब है। साहबे नेसाब वो है जिसके पास साढ़े सात तोला सोना या साढ़े बावन तोला चांदी में से कोई एक हो, या फिर बैंक, बीमा, पीएफ या घर में इतने के बराबर साल भर से रकम रखी हो तो उस पर मोमिन को ज़कात देना वाजिब है। ज़कात शरीयत में उसे कहते हैं कि अल्लाह के लिए माल के एक हिस्से को जो शरीयत ने मुकर्रर किया है मुसलमान फक़़ीर को मालिक बना दे। ज़कात की नीयत से किसी फक़़ीर को खाना खिला दिया तो ज़कात अदा न होगी, क्योंकि यह मालिक बनाना न हुआ। हां अगर खाना दे दे कि चाहे खाये या ले जाये तो अदा हो गई। यूं ही ज़कात की नियत से कपड़ा दे दिया तो अदा हो गई। ज़कात वाजिब के लिए चंद शर्ते है : मुसलमान होना (इसलिए कि ये इस्लामी टैक्स है), बालिग होना, आकि़ल होना, आज़ाद होना, मालिके नेसाब होना, पूरे तौर पर मालिक होना, नेसाब का दैन से फारिग होना, नेसाब का हाजते असलिया से फारिग होना, माल का नामी होना व साल गुज़रना। आदतन दैन महर का मोतालबा नहीं होता लेहाज़ा शौहर के जिम्मे कितना दैन महर हो जब वह मालिके नेसाब है तो ज़कात वाजिब है। ज़कात देने के लिए यह जरूरत नहीं है कि फक़़ीर को कह कर दे बल्कि ज़कात की नीयत ही काफी है।
फलाह पाते हैं जो ज़कात देते है
नबी-ए-करीम ने फरमाया जो माल बर्बाद होता है वह ज़कात न देने से बर्बाद होता है और फरमाया कि ज़कात देकर अपने मालों को मज़बूत किलों में कर लो और अपने बीमारों को इलाज सदक़ा से करो और बला नाज़िल होने पर दुआ करो। रब फरमाता है कि फलाह पाते हैं वो लोग जो ज़कात अदा करते है। जो कुछ रोज़ेदार खर्च करेंगे अल्लाह ताला उसकी जगह और दौलत देगा, अल्लाह बेहतर रोज़ी देने वाला है। आज हम और आप रोज़ी तो मांगते है रब से, मगर खाने कि, इफ्तार कि खूब बर्बादी करके गुनाह भी बटौरते है, इससे हम सबको बाज़ आना चाहिए।
उन्हे दर्दनाक अज़ाब की खुशखबरी सुना दो
अल्लाह रब्बुल इज्जत फरमाता है जो लोग सोना, चांदी जमा करते हैं और उसे अल्लाह की राह में खर्च नहीं करते उन्हें दर्दनाक अज़ाब की खुशखबरी सुना दो। जिस दिन जहन्नुम की आग में वो तपाये जायेंगे और इनसे उनकी पेशानियां, करवटें और पीठें दागी जायेगी। और उनसे कहा जायेगा यह वो दौलत हैं जो तुमने अपने नफ्स के लिए जमा किया था। ऐ अल्लाह तू अपने हबीब के सदके में हम सबको ज़काते देने की तौफीक दे..आमीन
(लेखक दिल इंडिया लाइव के सम्पादक हैं।)