"तासीर-ए-रहनुमाई"
वाराणसी(दिल इंडिया लाइव)
अपने ख़ुदा को मैं कैसे मनाऊँ
असर सजदों में कहाँ से मैं लाऊँ
क़ीमत ईमान की घटने लगी है
मस्जिद भी फ़िरकों में बँटने लगी है
कहीं न बदल दें हम अपने अमल को
कहीं बँट न जाए ये काबा भी कल को
उम्मीद-ए-मिल्लत सिमटने लगी है
मस्जिद भी फ़िरकों में बँटने लगी है
लाखों ख़ुदा हैं मज़हब में जिनके
रहते हैं फिर भी आपस में मिलके
पहचान मुसलमाँ की मिटने लगी है
मस्जिद भी फ़िरकों में बँटने लगी है
महफ़ूज़ हम सबका ईमान रखना
पनाहों में अपनी मेरी जान रखना
तहरीर-ए-आमिर खटकने लगी है
मस्जिद भी फ़िरकों में बँटने लगी है।