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गुरुवार, 1 जुलाई 2021

वीर अब्दुल हमीद के खून में थी पहलवानी


आज हम मना रहे हैं परमवीर चक्र विजेता  वीर अब्दुल हमीद की जयंती




वाराणसी 1 जुलाई (शाहीन अंसारी/दिल इंडिया लाइव)। अब्दुल हमीद का नाम लेते ही आज भी  भारतवासियोँ का सीना गर्व से ऊंचा हो जाता है। उनकी वीरता की कहानियां लोगों की ज़ुबान पर आ जाती है। कम्पनी क्वार्टर मास्टर हवलदार शहीद 1965 में हुए भारत-पाक युद्ध में अपनी अद्भुत साहस और वीरता को दिखाते हुए  दुशमनो के कई शक्तिशाली अमेरिकन पैटन टैंकों को धवस्त  कर दुशमनो को मुहतोड़ जवाब देते हुए वीर गति को प्राप्त हो गए। अब्दुल हमीद के जन्म दिवस पर उनका हम सब नमन करते हैं।

अब्दुल हमीद भारतीय सेना के प्रसिद्ध सिपाही थे, जिनको अपने सेवा काल में सैन्य सेवा मेडल, समर सेवा मेडल, रक्षा मेडल 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में असाधारण बहादुरी के लिए महावीर चक्र और परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।

 अब्दुल हमीद का जन्म 1 जुलाई, 1933 को उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर ज़िले में स्थित धामूपुर नाम के छोटे से  गांव में एक ऐसे परिवार में हुआ, जो आर्थिक रुप से ज्यादा मजबूत न था। हालांकि उनके पिता सेना में लॉस नायक पद पर तैनात थे बावजूद इसके उनकी माता को परिवार की आजीविका चलाने के लिए  सिलाई करनी पड़ती थी ताकि परिवार का पालन-पोषण हो सके। मां अब्दुल हमीद के भविष्य के लिए चिंतित रहती थी इसलिए चाहती थी कि वह सिलाई का काम सीख लें। लेकिन अब्दुल हमीद का दिल इस सिलाई के काम में बिलकुल नहीं लगता था, उनका मन तो बस कुश्ती दंगल के दांव पेंचों में लगता था। क्योंकि पहलवानी उनके खून में थी जो विरासत के रूप में उनको मिली। उनके पिता और नाना दोनों ही पहलवान थे। उनके सिर पर कुश्ती का भूत सवार था। कुश्ती को लेकर उनकी दीवानगी कुछ ऐसी थी कि जब पूरा गांव सोता था, तो वह कुश्ती के हुनर सीखते थे। उनकी कद-काठी भी पेशेवर पहलवानों जैसी ही थी। इसके अलावा लाठी चलाना, बाढ़ में नदी को तैर कर पार करना, सोते समय फौज और जंग के सपने देखना तथा अपनी गुलेल से पक्का निशाना लगाना भी उनकी खूबियों में था। अब्दुल हमीद थोड़े बड़े हुए तो उनका दाखिला गांव के एक स्कूल में कराया गया। वह सिर्फ चौथी कक्षा तक ही स्कूल गये।

अब्दुल हमीद का व्यवहार गांव के लोगों के लिए बहुत विनम्र था। वह अक्सर लोगों की मदद करते रहते थे। इसी कड़ी में एक दिन कुछ यूं हुआ कि वह गांव के एक चबूतरे पर बैठे थे, तभी गांव का एक युवक दौड़ते हुए उनके पास आया। उसकी सांसे फूल रही थी। जैसे-तैसे उसने हमीद को बताया कि जमींदारों के दबंग लगभग 50 की संख्या में जबरदस्ती उसकी फसल काटने की कोशिश कर रहे हैं। युवक को परेशानी में देखकर हमीद आग बबूला हो गए। उन्होंने न आव देखा न ताव और तेजी से खेतों की तरफ दौड़ पड़े। उन्होंने दबंगों को ललकारते हुए कहा, अपनी ख़ैर चाहते हो तो भाग जाओ। शुरुआत में तो दंबगों ने सोचा कि एक अकेला व्यक्ति हमारा क्या कर लेगा। पर जब उन्होंने हमीद के रौद्र रुप को देखा तो वह अपनी जान बचाकर भागने पर मजबूर हो गये।

अब्दुल हमीद का  धरमापुर गांव मगई नदी के किनारे बसा हुआ था। इस कारण अक्सर बाढ़ का खतरा बना रहता था। एक बार इस नदी का पानी अचानक बढ़ गया। पानी का बहाव इतना ज्यादा था कि नदी को पार करते समय नजदीक के गांव की दो महिलाएं उसमें डूबने लगी। लोग चीखने लगे। डूबने वाली महिलाएं बचाओ-बचाओ कहकर मदद के लिए लोगों को बुला रहीं थीं,  मगर अफसोस लोग तमाशबीन बने देख रहे थे, लेकिन मदद के लिए कोई आगे न बढ़ सका। तभी अब्दुल हमीद का वहां से गुज़रना हुआ। भीड़ देखकर वह नदी के किनारे पर पहुंचे तो उनसे महिलाओं को डूबते हुए न देखा गया। उन्होंने झट से बिना कुछ  सोचे -समझे नदी में झलांग लगा दी। जल्द ही वह महिलाओं को नदी से निकालने में कामयाब  हो गए । हमीद के इस कारनामे ने उन्हें देखते-ही-देखते सभी का दुलारा बना दिया।

धीरे धीरे उनकी उम्र बढती गयी और वो 21 साल के हो गए। वह अपने जीवन यापन के लिए रेलवे में भर्ती होने  के लिए गए। लेकिन उनका मन तो बस देश-प्रेम के प्रति लगा था, वह सेना में भर्ती हो  कर  सच्चे मन से देश की सेवा करना चाहते थे । आख़िरकार उनका  सपना पूरा हुआ सन 1954 में सेना में भर्ती  हो गये और वहां अपना कार्यभार संभाला।

1962 में चीन का हमला भारत पर हुआ तब अब्दुल हमीद को मौका  मिला अपने  देश के लिए कुछ कर दिखाने का। उस युद्ध में भारतीय सेना का एक जत्था चीनी सैनिको के घेरे में आ गया जिसमे हमीद भी थे। यह उनकी परीक्षा की घड़ी थी। वह लगातार मौत को चकमा देकर मुकाबले के लिए मोर्चे पर डंटे रहे,  लेकिन उनका  शरीर लगातार खून से भीगता जा रहा था,उनके साथी एक-एक कर के कम होते जा रहे थे, लेकिन इसके विपरीत अब्दुल हमीद की मशीन गन दुशमनों पर मौत के गोले बरसा रही थी, लेकिन एक समय आया जब धीरे-धीरे  उनके पास उपलब्ध गोले और गोलिया ख़त्म हो गए।  अब हमीद करे तो क्या करे  जैसी स्थिति में आ गए। और खाली हो चुकी मशीन गन  दुशमनो के हाथ ना लगे इस लिए अपनी मशीनगन को तोड़ डाला और अपनी वीरता के साथ समझदारी दिखाते हुए बर्फ से घिरी पहाड़ियों से रेंगते हुए वहां से निकल पड़े। 

चीन के युद्ध में वीरता और समझदारी का परिचय देने वाले  जवान अब्दुल हमीद को 12 मार्च 1962 में सेना ने  'लॉसनायक अब्दुल हमीद ' बना दिया। वो इसी तरह अपनी बहादुरी का परिचय देते रहे और दो से तीन वर्षों  के अन्दर हमीद को नायक हवलदारी और कम्पनी क्वार्टर मास्टरी भी प्राप्त हो गयी। 

 8 सितम्बर 1965 की रात के समय पाकिस्तान ने भारत पर हमला बोल दिया और दोनों देशों के बीच जंग शुरू हो गयी तब एक बार फिर अब्दुल हमीद को अपनी जन्म भूमि के लिए कुछ करने का मौका मिल गया।

इस मोर्चे पर जाने से पहले अब्दुल हमीद ने अपने भाई के नाम एक ख़त लिखा और उस ख़त में उन्होंने लिखा कि,  'पल्टन में उनकी बहुत इज़्ज़त होती है जिन के पास कोई चक्र होता है। देखना झुन्नन हम जंग में लड़कर कोई न कोई चक्र जरूर लेकर लौटेंगे.. '

अब्दुल हमीद पंजाब के तरन तारन जिले के खेमकरण सेक्टर पंहुचे जहां युद्ध हो रहा था। पकिस्तान के पास उस समय सबसे घातक  हथियार के रूप में  “अमेरिकन पैटन टैंक”  थे जिसे लोहे का शैतान भी कहा जा सकता हैं और इन पैटन टैंकों पर पकिस्तान को बहुत नाज था। पाकिस्तान ने उन्ही टैंको के साथ “असल उताड़” गाँव पर ताबड़तोड़ हमला कर दिया।

उधर पकिस्तान के पास अमेरिकन पैटन टैंकों का ज़खीरा था  इधर भारतीय सैनिको के पास उन तोपों से मुकाबला करने के लिए कोई बड़े हथियार ना थे। था तो बस भारत माता की दुशमनो से रक्षा करते हुए रणभूमि में शहीद हो जाने का हौसला और हथियार के नाम पर  साधारण “थ्री नॉट थ्री रायफल” और एल.एम्.जी । इन्ही हथियारों के साथ हमारे सभी वीर सैनिक दुश्मनों के छक्के छुड़ाने लगे।

इधर वीर अब्दुल हमीद के पास अमेरिकन पैटन टैंकों के सामने खिलौने सी लगने वाली “गन माउनटेड जीप” थी। पर दुशमनो को यह नहीं पता था उस पर सवार वीर नहीं परमवीर अब्दुल हमीद हैं। जिनका निशाना महाभारत के अर्जुन की तरह हैं। 

जीप पर सवार दुशमनो से मुकाबला करते हुए हमीद पैटन टैंकों के उन कमजोर हिस्सों पर अपनी बंदूक से इतना सटीक निशाना लगाते थे जिससे लोह रूपी दैत्य धवस्त हो जाता। अब्दुल हमीद ने अपनी बंदूक से एक-एक कर टैंको को नष्ट करना शुरू कर दिया। उनका यह पराक्रम देख दुश्मन भी चकित से रह गए।  जिन टैंको पर पकिस्तान को बहुत नाज़ था. वह साधारण सी बंदूक से  धवस्त हो रहे थे। अब्दुल हमीद को देख भारतीय सैनिको में और जोश बढ़ गया और वो पाकिस्तानी सेना को खदेड़ने में लग गए। अब्दुल हमीद ने एक के बाद एक कर सात पाकिस्तानी पैटन टैंकों को नष्ट कर दिया ।

असल उताड़ गाँव पाकिस्तानी टैंको की कब्रगाह में बदलता चला गया। पाकिस्तानी सैनिक अपनी जान बचा कर भागने लगे लेकिन वीर हमीद मौत बन कर उनके पीछे लगे थे, और भागते हुए सैनिको का पीछा जीप से करते हुए उन्हें मौत की नींद सुला रहे थे, तभी अचानक एक गोला हमीद के जीप पर आ गिरा जिससे वह बुरी तरह ज़ख़्मी हो गए। और 9 सितम्बर 1965 को  देश का यह जांबाज़ सिपाही वीरता और अदम्य साहस से अपने देश की आन, बान और शान की ख़ातिर दुश्मनों से लड़ते हुए हम सब को छोड़ वीरगति को प्राप्त हो गया। इसकी अधिकारिक घोषणा 10 सितम्बर 1965 को की गई। 

इस युद्ध में वीरता पूर्वक अदुभुत पराक्रम का परिचय देने वाले वीर अब्दुल हमीद को पहले 'महावीर चक्र ' और फिर सेना के सर्वोच्च सम्मान 'परमवीर चक्र' से अलंकृत किया गया।

उसके बाद भारतीय डाक विभाग ने 28 जनवरी 2000 को वीर अब्दुल हमीदके सम्मान में पांच डाक टिकटों के सेट में 3 रुपये का एक सचित्र डाक टिकट जारी किया, इस डाक टिकट पर  रिकाईललेस राइफल से गोली चलाते हुए जीप पर सवार वीर अब्दुल हामिद का एक रेखा चित्र बना हुआ है। शहीद वीर अब्दुल हमीद की स्मृति में उनकी क़ब्र पर एक समाधि का निर्माण किया गया। हर साल उनकी शहादत पर उनकी समाधि पर एक विशेष मेले का आयोजन किया जाता है।

"शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।

वतन पर मिटने वालों का ये ही बाक़ी निशाँ होगा।

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