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रविवार, 30 जुलाई 2023

Munshi Premchand ने समाज की विसंगतियों पर चलाई सदैव कलम

डाककर्मी के पुत्र मुंशी प्रेमचंद ने लिखी साहित्य की नई इबारत: पोस्टमास्टर जनरल

आज भी प्रासंगिक हैं प्रेमचन्द के साहित्यिक व सामाजिक विमर्श

(प्रेमचंद की जन्मस्थली लमही में पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव)


Varanasi (dil India live). हिन्दी साहित्य के इतिहास में उपन्यास सम्राट के रूप में प्रसिद्ध मुंशी प्रेमचंद के पिता अजायब राय श्रीवास्तव लमही, वाराणसी में डाकमुंशी (क्लर्क) के रूप में कार्य करते थे। ऐसे में प्रेमचंद का डाक-परिवार से अटूट सम्बन्ध था। मुंशी प्रेमचंद को पढ़ते हुए पीढ़ियाँ बड़ी हो गईं। उनकी रचनाओं से बड़ी आत्मीयता महसूस होती है। ऐसा लगता है मानो इन रचनाओं के  पात्र हमारे आस-पास ही मौजूद हैं। प्रेमचंद जयंती (31 जुलाई) की पूर्व संध्या पर उक्त उद्गार चर्चित ब्लॉगर व साहित्यकार एवं वाराणसी परिक्षेत्र  के पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने व्यक्त किये। 

पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि लमही, वाराणसी में जन्मे डाककर्मी के पुत्र मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य की नई इबारत  लिखी। हिंदी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में 1918 से 1936  तक के कालखंड को 'प्रेमचंद युग' कहा जाता है। प्रेमचंद साहित्य की वैचारिक यात्रा आदर्श से यथार्थ की ओर उन्मुख है। मुंशी प्रेमचंद स्वाधीनता संग्राम के भी सबसे बड़े कथाकार हैं। श्री कृष्ण कुमार यादव ने बताया कि, प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाक विभाग की ओर से 30 जुलाई 1980 को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट भी जारी किया जा चुका है। 

पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि, प्रेमचन्द के साहित्यिक और सामाजिक विमर्श आज भूमंडलीकरण के दौर में भी उतने ही प्रासंगिक हैं। उनकी कृतियों के तमाम चरित्र, मसलन- होरी, मैकू, अमीना, माधो, जियावन, हामिद कहीं-न-कहीं वर्तमान समाज के सच के सामने फिर से तनकर खड़े हो जाते हैं। प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। प्रेमचन्द जब अपनी रचनाओं में समाज के उपेक्षित व शोषित वर्ग को प्रतिनिधित्व देते हैं तो निश्चिततः इस माध्यम से वे एक युद्ध लड़ते हैं और गहरी नींद सोये इस वर्ग को जगाने का उपक्रम करते हैं। श्री यादव ने कहा कि प्रेमचन्द ने अपने को किसी वाद से जोड़ने की बजाय तत्कालीन समाज में व्याप्त ज्वलंत मुद्दों से जोड़ा। उनका साहित्य शाश्वत है और यथार्थ के करीब रहकर वह समय से होड़ लेती नजर आती हैं।

सोमवार, 1 अगस्त 2022

Munshi Prem Chandra:साहित्यकार महाभारत काल के बर्बरीक की भांति

मुंशी प्रेमचंद, डॉ. उमाशंकर तिवारी की जयन्ती 
Ghazipur (dil india live). शहर के अष्टभुजी कॉलोनी स्थित द प्रेसिदियम इंटरनेशनल स्कूल के सभागार में साहित्य चेतना समाज और अखिल भारतीय हिन्दी महासभा ने मुंशी प्रेमचंद और डॉ उमाशंकर तिवारी की जयन्ती का आयोजन किया। संस्था के संस्थापक अमरनाथ तिवारी ने सभी आगन्तुक साहित्यसेवियों का स्वागत करते हुए मुंशी प्रेमचन्द और डॉ उमाशंकर तिवारी को नमन किया। कार्यक्रम का आरम्भ दीप प्रज्ज्वलन, माल्यार्पण और पुष्पार्चन से हुआ।

आधार वक्तव्य रखते हुए माधव कृष्ण ने कहा कि, साहित्यकार महाभारत काल के बर्बरीक की भांति होता है। साहित्यकार की वैयक्तिकता मरती है तो वह समग्रता विकसित करता है और तटस्थ रूप से घटनाओं का निरीक्षण कर साहित्य रचता है। मुंशी प्रेमचंद कालजयी इसलिए हैं क्योंकि उस कालखण्ड की कोई भी घटना उनकी पैनी दृष्टि से बच नहीं पायी। इस्लामिक कट्टरता पर ‘दिल की रानी’ इसका एक उदाहरण है। डॉ उमाशंकर तिवारी का साहित्यिक अवदान यही है कि जब साठ के दशक के बाद गीत लिखना पिछडापन माना जाने लगा, उन्होंने यथार्थवादी गीतों की रचना की जो आज भी लोग गुनगुनाते हैं।

मुख्य वक्ता डॉ रामनारायण तिवारी ने कहा कि मुंशी प्रेमचंद का साहित्य पूरे भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करता क्योंकि उन्होंने अधिकांशतः नगरीय विसंगतियों का वर्णन किया है जबकि उस समय अस्सी प्रतिशत से ऊपर जनसंख्या गाँव में रहती थी। उन्हें आलोचकों ने गढ़ा है, पढ़ा नहीं। उन्होंने नवगीतकार डॉ उमाशंकर तिवारी को संवेदना पर खड़ा साहित्यकार बताया और यही उनकी विशिष्ट पहचान है। उन्होंने दोनों साहित्यकारों का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए कहा कि, तिवारी जी लोक को समझ पाए लेकिन मुंशी प्रेमचंद की लोकधर्मिता संदिग्ध है। उन्होंने आज के साहित्यकारों को अधिक से अधिक लोक के जुड़कर उसे समझने पर बल दिया।

विशिष्ट वक्ता डॉ श्रीकांत पाण्डेय ने मुंशी प्रेमचंद के साहित्य को विस्तृत बताया और कहा कि, वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। प्रेमचंद की रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं। उन्होंने उमाशंकर तिवारी जी को अत्यधिक संवेदनशील गीतकार बताया जिसके अपने अनूठे जीवन संघर्ष थे, जो प्राचार्यत्व को बोझ मानते थे और गीतधर्म को मुक्ति।

विशिष्ट वक्ता डॉ व्यासमुनी राय ने मुंशी प्रेमचंद के इस वक्तव्य उद्धृत किया - साहित्य के भावों की जो उच्चता, भाषा की प्रौढ़ता और स्पष्टता, सुन्दरता की जो साधना होती है, वह हमें सिनेमा में नहीं मिलती। और कहा कि, एक अध्ययनशील वातावरण की आवश्यकता है। उन्होंने डॉ उमाशंकर तिवारी के पुराने दिनों को स्मरण किया और बताया कि राजकीय सिटी इंटर कॉलेज में कक्षा ६ से ही वह प्रेयर बॉय बन गए थे और उन्हें कोकिल उपनाम से बुलाया जाता था।

कथाकार गजाधर शर्मा गंगेश जी ने प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्य और उदारता की वह मूर्ति थे। जहाँ उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में ग़रीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। उन्होंने डॉ मशंक्र तिवारी से अपनी निकटताओं पर बात करते हुए कहा कि, उनके जाने के बाद गाजीपुर में काव्य गोष्ठियों की सक्रियताएं कम हो गयीं। ऐसे महापुरुषों को याद करने मात्र से हिन्दी साहित्य गतिशील हो उठता है। 

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में विश्वविमोहन शर्मा ने डॉ उमाशंकर तिवारी के गीत “वे लोग जो काँधे हल ढोते/खेतों में आँसू बोते हैं-/उनका ही हक़ है फ़सलों पर/अब भी मानो तो/बेहतर है।” का वाचन किया और मुंशी प्रेमचंद के साहित्य को अमर बताया।

डॉ राकेश पाण्डेय जी ने मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में स्वजातीय लोगों को खलनायक न दिखाने पर प्रश्न खड़ा किया; और साथ ही कहा कि उनकी कहानियों में इस्लामिक आतंकवाद इत्यादि देखना ठीक नहीं। डॉ इन्दीवर रत्न पाठक ने राम अवतार सिंह भीखा जी द्वारा रचित गीत “भारत भूमि सुहावन देव मनभावन हो/भईया दुनिया में नाहीं अइसन माटी, न पानी अइसन पावन हो।” सुनकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। कवयित्री पूजा राय जी ने “हमारे भीतर उपस्थित है प्रेम का शोर” का काव्य पाठ किया और वंचितों पीड़ितों को और अधिक प्रेम करने की आवश्यकता पर बल दिया। कवयित्री अनुश्री ने ऑनर किलिंग पर कविता “मौलिक अधिकारों वाले पन्नों को/चाट चुके थे दीमक” प्रस्तुत की और लोगों को सोचने पर विवश किया।

डॉ निरंजन यादव ने संचालन करते हुए श्रोताओं को बांधे रखा और वातावरण जीवंत बनाया। धन्यवाद ज्ञापन डॉ शिखा तिवारी ने किया और कहा कि, दोनों साहित्यकारों का जन्मदिन एक साथ है फिर भी उनमें तुलनात्मक अध्ययन ठीक नहीं। दोनों का कालखंड अलग-अलग है और दोनों की विधा भी अलग है। मुंशी प्रेमचंद जहां युगों युगों तक अपने कथा के लिए याद किये जायेंगे वहीं डॉ उमाशंकर तिवारी अपनी संवेदना और हिंदी साहित्य में नवगीत के प्रस्थान बिंदु के रूप में याद किये जायेंगे। सभा में प्रभाकर त्रिपाठी, हरीश पाण्डेय, सहेंद्र यादव, सज्जन जायसवाल इत्यादि उपस्थित थे।

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