शारदीय नवरात्र के चौथे दिन मां कूष्माष्डा की भक्ति में डूबे भक्त
Varanasi (dil India live).18.10.2023. नवरात्रि के चौथे दिन मां कूष्माण्डा की पूजा करने देवी मंदिरों में भक्तों का हुजूम उमड़ पड़ा। इस दौरान बुधवार को महिलाओं ने चौथा व्रत रख कर मंदिरों का रुख किया। देवी कूष्मांडा की पूजा करने कुमकुम, मौली, अक्षत, पान के पत्ते, केसर और शृंगार आदि श्रद्धा पूर्वक भक्तों ने चढ़ाया। इस दौरान काफी भक्तों ने सफेद कोहड़ा मातारानी को अर्पित किया, और दुर्गा चालीसा का पाठ किया। अंत में घी के दीपक जलाकर कपूर से मां कूष्मांडा की आरती की गई व मां कूष्मांडा से अपने परिवार के सुख-समृद्धि और संकटों से रक्षा का आशीर्वाद लिया गया। मनचाहे वर की प्राप्ति के लिए देवी कुष्मांडा की पूजा अविवाहित लड़कियों ने भी की। काशी के पंडित नवीन कुमार दुबे बताते हैं कि मां कुष्मांडा का स्वरुप बहुत ही पावन है। मां की आठ भुजाएं हैं, इसलिए मां कूष्माण्डा अष्टभुजा वाली भी कहलाईं। इनके आठ हाथों में कमण्डलु, धनुष, बाण, कमल-पुष्प अमऋतपूर्ण कलश, चक्र, गदा और माला है। मां कूष्माण्डा का वाहन सिंह है। जिनकी साधना करने पर साधक के जीवन से जुड़े सभी कष्ट दूर और कामनाएं पूरी होती हैं। इसलिए कष्टों और बीमारियों से मुक्ति के लिए मंदिरों में महिलाओं-पुरुषों की भारी भीड़ उमड़ी हुई है।वो बताते है कि इनका निवास सूर्य मंडल के भीतर के लोक में स्थित है। सूर्य लोक में निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। नवरात्रि के चौथे दिन देवी कुष्मांडा की पूजा करने मंदिरों में अपार भीड़ भोर से ही दिखाई दी। कानपुर, वाराणसी और उत्तराखंड के कुष्मांडा देवी मंदिर देश भर में प्रसिद्ध हैं। इनमें भी वाराणसी में मौजूद मंदिर बहुत पुराना माना जाता है और उसका महत्व भी बहुत है। इसे दुर्गा मंदिर कहा जाता है और इसमें देवी के कुष्मांडा स्वरूप की पूजा की जाती है। देवी भागवत ग्रंथ में भी इसका उल्लेख है। मान्यताओं के अनुसार देवी कुष्मांडा के दर्शन से शत्रुओं का विनाश होता है। सुख शांति और धन एवं वैभव की प्राप्ति होती है। वाराणसी के दक्षिण क्षेत्र के भव्य मंदिर में देवी दुर्गा कुष्मांडा रूप में विराजमान हैं। मंदिर से लगे कुंड का भी महत्व दुर्गाकुंड के रूप में है। देवी भागवत में भी इस मंदिर का उल्लेख है।
ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने वाली मां कूष्मांडा सृष्टि की आदि-स्वरूपा, आदि शक्ति हैं। अपनी मंद, हल्की हंसी द्वारा अण्डा अर्थात ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से अभिहित किया गया है। जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार परिव्याप्त था, तब इन्हीं देवी ने अपने 'ईषत' हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। इनके पूर्व ब्रह्माण्ड का अस्तित्व नहीं था।
इनके शरीर की कांति और प्रभा भी सूर्य के समान ही है, इनके तेज की तुलना इन्हीं से की जा सकती है। अन्य कोई भी देवी-देवता इनके तेज़ और प्रभाव की समता नहीं कर सकते। इन्हीं के तेज़ और प्रकाश से दसों दिशाएं प्रकाशित हो रहीं हैं। ब्रह्माण्ड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में स्थित तेज़ इन्हीं की छाया है। इनकी आठ भुजाएं हैं,अतः ये अष्टभुजा देवी के नाम से भी जानी जाती हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डलु, धनुष, बाण, कमलपुष्प, अमृत कलश,चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है एवं इनका वाहन सिंह है यह भी कथा है कि शुम्भ-निशुम्भ के वध के बाद थकी देवी ने इस स्थान पर ही शयन किया था। उनके हाथ से उनकी असि जिस स्थान पर खिसकी, वह स्थान असि नदी के रूप में विख्यात हुआ। लिंग पुराण के अनुसार दक्षिण में दुर्गा देवी काशी क्षेत्र की रक्षा करती हैं।
एक मान्यता के अनुसार, इस मंदिर में स्थापित मूर्ति को मनुष्यों द्वारा नहीं बनाया गया है बल्कि यह मूर्ति स्वंय प्रकट हुई थी, जो लोगों की बुरी ताकतों से रक्षा करने आई थी। नवरात्रि और अन्य त्यौहारों के दौरान इस मंदिर में हजारों भक्तगण श्रद्धापूर्वक आते है। गैर-हिंदू को मंदिर के आंगन और गर्भगृह में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है। इस मंदिर को बंदर मंदिर भी कहा जाता है क्यों कि इस मंदिर के परिसर में काफी संख्या में बंदर उपस्थित रहते है।
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